
Prabhat Vaibhav, Digital Desk: शहर के लोगों के लिए डंपिंग ग्राउंड में फैला कचरा एक नासूर बन चुका है। निगम अब तक इस गंदगी को हटाने में करीब 100 करोड़ रुपए खर्च कर चुका है, लेकिन हालात जस के तस बने हुए हैं। बायो माइनिंग के नाम पर जो कंपनियां काम कर रही हैं, उनकी कार्यशैली और अनुभव पर कई गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं। अब यह मामला केंद्रीय जांच एजेंसियों—CBI और CVC—तक पहुंच गया है।
दरअसल, खुद नगर निगम के कुछ पूर्व पार्षदों ने इस पूरे मामले की शिकायत की है। उन्होंने मांग की है कि डंपिंग ग्राउंड की सफाई के लिए जो टेंडर अब तक दिए गए हैं, उनकी पूरी जांच हो। हैरानी की बात ये है कि इस बार जिस सरकारी संस्था (PSU) को करोड़ों का काम सौंपा गया है, उसके पास इस क्षेत्र में कोई अनुभव ही नहीं है।
इतना ही नहीं, इस संस्था को पहले से चल रही कंपनी की तुलना में लगभग दोगुने रेट पर काम दिया गया है। जहां पहले एक कंपनी 450 रुपये प्रति टन के हिसाब से काम कर रही थी, वहीं अब PSU को 850 रुपये प्रति टन दिए जा रहे हैं। इस "सिंगल टेंडर" की प्रक्रिया पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं।
नियमों को ताक पर रखकर दो कंपनियों को अलग-अलग मापदंडों पर टेंडर दिए गए। पहले कंपनी को क्यूबिक मीटर के आधार पर भुगतान किया गया और अब दूसरी कंपनी को टन के आधार पर। इससे नगर निगम को करोड़ों का नुकसान हुआ, जबकि काम एक प्राइवेट कंपनी को सबलेट कर दिया गया, जिसने जमकर कमाई की।
सिंगल टेंडर पर इस तरह काम देना नियमों के खिलाफ है। निगम को किसी भी PSU को काम देने से पहले प्रतिस्पर्धी प्रक्रिया अपनानी होती है और शहरी विकास मंत्रालय से उन PSUs की सूची लेनी होती है जो इस क्षेत्र में कार्यरत हैं।
सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि काम में देरी होने के बावजूद न तो कंपनी पर कोई जुर्माना लगाया गया, न ही जवाबदेही तय की गई। अब जबकि मानसून सिर पर है, बायो माइनिंग का सिर्फ 20% काम ही पूरा हो सका है। बारिश शुरू होते ही काम रुक जाएगा और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) के सामने निगम की किरकिरी तय है।
जमीन पर काम की रफ्तार इतनी धीमी है कि अगले छह महीने में भी कचरे से निजात मिलने की कोई उम्मीद नहीं दिखती। और जितना वक्त इस काम में लगेगा, उतना ही एक नया कचरे का पहाड़ खड़ा होता रहेगा।