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किस्सा-ए-चुनाव : लखनऊ में जब आशिकों पर भारी पड़े मरीज

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लखनऊ। देश में इन दिनों लोकसभा चुनाव का खुमार छाया हुआ है। 5 चरणों का मतदान हो चूका है। पांचवे चरण के लिए सियासी पार्टियों के बीच जोरआजमाइस चल रही है। पांचवे चरण में  20 मई को शहर-ए-तहजीब लखनऊ में भी मतदान होना है। चुनावों के दौरान हजरतगंज स्थित इंडियन काफी हाउस में अक्सर एक पुराना किस्सा खूब सूना और सुनाया जाता है। ये पुराना किस्‍सा आजादी के पहले 1920 के चुनाव से ही संबंधित है। 

दरअसल, तहजीब- ए-शहर लखनऊ कभी तवायफों और कोठों के लिए भी मशहूर था। तमाम राजा, महाराजा, नवाब और निजाम अक्सर लखनऊ के कोठों पर शाम की महफिलों में नजर आया करते थे। उस दौर में पुराने शहर के चौक इलाके में दिलरुबा जान नाम की एक तवायफ रहती थीं। दिलरुबा जान की खूबसूरती और अदाओं के किस्से लखनऊ समेत पूरे सूबे में मशहूर थे। मशहूर इतिहासकार और अग्रज मित्र योगेश प्रवीण ने अपनी पुस्‍तक 'तवायफ' में दिलरुबा जान के बारे में विस्‍तार से लिखा है।

बात 1920 के लखनऊ नगर पालिका चुनाव की है। इस चुनाव के समय दिलरुबा जान को भी सियासत का चस्‍का लगा और वो चुनाव में कूद पडी। इस चुनाव और इससे जुड़े नारों व पैंतरों के किस्से लोगों की जुबान से इतिहास में भी दर्ज हो गए। आज भी उस चुनाव की चर्चा यहां के बड़े से बड़े नेता और मंत्री तक करते हैं। उस चुनाव के बाद एक जुमला मशहूर हुआ कि ‘लखनऊ में आशिक कम और मरीज ज्यादा रहते हैं’। 

जाने-माने इतिहासकार डॉ. रवि भट्ट के मुताबिक़ वर्ष 1920 में लखनऊ में नगर पालिका का चुनाव हो रहा था। तवायफ दिलरुबा ने नगर पालिका चुनाव लड़ने का फैसला लेकर सभी को चौंका दिया था। दिलरुबा जब चुनाव प्रचार के लिए निकलती थीं तो उनके पीछे हजारों का हुजूम चलता था। इसीलिए, सभी नेता उसके खिलाफ चुनाव लड़ने से कतरा रहे थे।

उस दौर में लखनऊ के अकबरी गेट के पास एक हकीम रहते थे, जिसका नाम शमसुद्दीन था। हक़ीम साभ की भी अपनी मशहूरियत थी। हकीम शमसुद्दीन के चाहने वालों ने दबाव डालकर नगर पालिका चुनाव लड़ने के लिए तैयार कर लिया। लेकिन, चुनाव में दिलरुबा जान के रुतबे को देखकर हकीम साहब को लगने लगा कि चुनाव जीतना मुश्किल है। दरअसल, हाकिम साहब के पीछे गिने-चुने लोग थे, जबकि दिलरुबा के पीछे पूरा हुजूम। ऐसे में हाकिम साहब का घबराना स्वाभाविक था।

बताते चलें कि वो दौर चुनावी नारों का था। हकीम साहब ने लखनऊ शहर के तमाम दीवारों पर एक ऐसा नारा लिखवाया, जो देखते-देखते सबकी जुबान पर चढ़ गया। ये नारा था 'है हिदायत लखनऊ के तमाम वोटर-ए-शौकीन को, दिल दीजिए दिलरुबा को, वोट शमसुद्दीन को'। इस नारे से दिलरुबा जान घबरा गयी। लेकिन दिलरुबा भी कम नहीं थी। उन्होंने भी पलटवार करते हुए इसका जवाब दूसरे नारे से दिया। दिलरुबा ने नारा दिया 'है हिदायत लखनऊ के तमाम वोटर-ए-शौकीन को, वोट देना दिलरुबा को, नब्ज शमसुद्दीन को'।

इतिहासकार डॉ. रवि भट्ट के मुताबिक़ नगर पालिका चुनाई के जब नतीजे आये तो लोगों को उसपर विश्वास ही नहीं हो रहा था। इस चुनाव में हक़ीम शमसुद्दीन भारी मतों से विजई हुए और दिलरुबा हार गई। दरअसल, शहर में दिलरुबा जान की लोकप्रियता भले ही चरम पर थी, और उनके पीछे तमाम भीड़ थी, लेकिन दिलरुबा जान की सभाओं में उमड़ने वाली भीड़ वोट में तब्‍दील नहीं हो सकी। 

इतिहासकार योगेश प्रवीण ने एक बार एक गोष्ठी में बताया था किन चुनाव में हार के बाद दिलरुबा जान बहुत उदास हो गईं थी। बाद में दिलरुबा हकीम शमसुद्दीन को जीत की बधाई देने उनके दर पर पहुँची। इस दौरान दिलरुबा जान ने कहा था कि इस चुनाव से एक बात तो साफ हो गई, 'शमसुद्दीन चौक में आशिक कम और मरीज ज्यादा हैं।' दिलरुबा की यह उक्ति भी इतिहास में दर्ज हो गयी। लखनऊ में चुनावों के वक्त तमाम पुराने लोग आज भी 1920 के उस चुनाव की चर्चा बड़े मजेदार ढंग से करते हैं।

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