हाईकोर्ट ने धामी सरकार को दिया अंतिम मौका, तीन महीने में करनी होगी लोकायुक्त की नियुक्ति

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(कोर्ट सख्त)
काफी लंबे समय से नैनीताल हाई कोर्ट उत्तराखंड की धामी सरकार से लोकायुक्त की नियुक्ति करने का आदेश जारी कर रही थी। इसके बावजूद उत्तराखंड की धामी सरकार ने अभी तक राज्य में लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं की है। जिसके बाद शुक्रवार को नैनीताल हाईकोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए उत्तराखंड सरकार को अंतिम चेतावनी जारी की है। कोर्ट के इस सख्त आदेश के बाद धामी सरकार में खलबली मच गई है। ‌नैनीताल हाईकोर्ट ने लोकायुक्त की नियुक्ति की मांग को लेकर दायर जनहित याचिका पर सुनवाई की। कोर्ट ने राज्य सरकार को लोकायुक्त की नियुक्ति करने के लिए तीन माह का अंतिम मौका दिया है। कोर्ट ने कहा है कि जब तक लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हो जाती, उनके कार्यालय के कर्मचारियों को वहां से वेतन न दिया जाए। चाहे तो सरकार उनसे अन्य विभाग से कार्य लेकर उन्हें भुगतान कर सकती है। उत्तराखंड हाई कोर्ट के समक्ष एक जनहित याचिका दायर की गई थी। याचिका में बताया गया था कि भ्रष्टाचार विरोधी संस्था के प्रमुख की नियुक्ति के बिना उसके कार्यालय के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च किए जा रहे हैं। हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश विपिन सांघी और न्यायमूर्ति राकेश थपलियाल की खंडपीठ ने इस याचिका पर सुनवाई के बाद राज्य सरकार को लोकायुक्त की नियुक्ति का आदेश जारी कर दिया है। उत्तराखंड की सरकार ने उच्च न्यायालय से राज्य में लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए 6 महीने का समय मांगा था। 

हालांकि, न्यायालय ने इसके लिए तीन महीने का समय देते हुए कहा कि सरकार इतने समय में ही लोकायुक्त की नियुक्ति करे। कोर्ट के समक्ष दायर की गई जनहित याचिका में कहा गया था कि राज्य सरकार भ्रष्टाचार विरोधी संस्था के नाम पर हर साल दो से तीन करोड़ रूपये खर्च कर रही है। इतने खर्च के बावजूद भी राज्य में अब तक लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं की गई है। राज्य में कोई ऐसी एजेंसी नहीं है जो सरकार की पूर्वानुमति के बिना किसी नौकरशाह के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला दर्ज करे। याचिका में इन दलीलों के आधार पर लोकायुक्त के रिक्त पद को जल्द भरे जाने का अनुरोध किया गया था। मामले के अनुसार जनहित याचिका में कहा गया है कि राज्य सरकार ने अभी तक लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं की है। जबकि संस्थान के नाम पर वार्षिक 2 से 3 करोड़ रुपए खर्च हो रहा है। जनहित याचिका में कहा गया है कि कर्नाटक में और मध्य प्रदेश में लोकायुक्त द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जा रही है। परंतु उत्तराखंड में तमाम घोटाले हो रहे हैं। हर एक छोटे से छोटा मामला उच्च न्यायालय में लाना पड़ रहा है। 

सरकार की तरफ से यह भी कहा गया कि लोकायुक्त के कार्यालय में 26 कर्मचारी हैं, जिसमें से 9 रेरा में कार्य कर रहे हैं, उनको वहीं से वेतन दिया जाता है। 17 कर्मचारी लोकायुक्त के कार्यालय में हैं। इसलिए इनका वेतन लोकायुक्त कार्यालय से देने के आदेश दिए जाएं। इस पर हाईकोर्ट ने सरकार को लोकायुक्त नियुक्त करने हेतु 3 माह का अंतिम अवसर देने के साथ साथ कर्मचारियों को उसके कार्यालय से वेतन नहीं देने के आदेश दिए हैं।हल्द्वानी निवासी रवि शंकर जोशी ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका में कहा गया था कि राज्य सरकार ने अभी तक लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं की जबकि संस्थान के नाम पर वार्षिक 2 से 3 करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। याचिका में कहा गया कि कर्नाटक और मध्य प्रदेश में लोकायुक्त की ओर से भ्रष्टाचार के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जा रही है लेकिन उत्तराखंड में तमाम घोटाले हो रहे हैं। छोटे से छोटा हर मामला हाईकोर्ट में लाना पड़ रहा है। 

याचिका में कहा गया कि वर्तमान में राज्य की सभी जांच एजेंसियां सरकार के अधीन है, जिसका पूरा नियंत्रण राज्य के राजनीतिक नेतृत्व के हाथों में है। याचिका में कहा गया कि उत्तराखंड में वर्तमान में ऐसी कोई जांच एजेंसी नहीं है जिसे सरकार की पूर्वानुमति के बिना किसी नौकरशाह के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला दर्ज करने का अधिकार हो । याचिका में कहा गया है कि इसके मद्देनजर लोकायुक्त के रिक्त पद को जल्द भरा जाना चाहिए।


उत्तराखंड में लोकायुक्त विधेयक साल 2011 में पारित किया गया था--


प्रदेश में लोकायुक्त विधेयक पर 10 साल से कोई निर्णय नहीं हो पाया है। विधेयक में कई संशोधन होने के बाद अब यह विधानसभा की संपत्ति के रूप में बंद है। प्रदेश में विधानसभा चुनाव के बाद नई सरकार के अस्तित्व में आने पर नजरें एक बार फिर लोकायुक्त पर टिक गई हैं। जिस तरह सरकार पारदर्शिता व मितव्ययता पर जोर दे रही है, उससे आमजन भी अब मजबूत लोकायुक्त विधेयक के पारित होने की उम्मीद कर रहा है। 

उत्तराखंड में लोकायुक्त विधेयक 2011 में पारित किया गया। इसे राष्ट्रपति से मंजूरी भी मिल गई थी। वर्ष 2012 में सत्ता परिवर्तन हुआ तो नई सरकार ने इसमें अपने हिसाब से संशोधन किए। वर्ष 2017 में भाजपा सत्ता में आई तो विधेयक पर विधानसभा में चर्चा हुई। विपक्ष की सहमति के बावजूद इसे प्रवर समिति को सौंपा गया। तब से आज तक इसे सदन में दोबारा प्रस्तुत नहीं किया गया है। भ्रष्टाचार देश के सामने एक गंभीर चुनौती बन कर खड़ा है। सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि भ्रष्टाचार नागरिकों के समानता और जीवन के अधिकार संबंधी संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन करता है। 

वास्तव में भ्रष्टाचार निष्पक्षता, समानता और पारदर्शिता के सिद्धांतों को कमजोर करता है जो नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए आवश्यक है। आइए जानते हैं लोकायुक्त के पास कौन-कौन सी शक्तियां होती हैं। हाई लेवल करप्शन के खिलाफ जांच करना। जांच के बाद कार्रवाई के लिए राज्य सरकार से संस्तुति करना। कुशासन के खिलाफ कार्रवाई करना। गुड गवर्नेंस के लिए बैकग्राउंड तैयार करना। ट्रांसपैरेंट और एकाउंटेबल एडमिनिस्ट्रेशन का बैकग्राउंड तैयार करना। हर क्षेत्र में ट्रांसपेरेंसी लाने के लिए काम करना। लोगों में करप्शन के खिलाफ जागरूकता लाने के लिए काम करना। लोक प्रशासन में राजनीतिक हस्तक्षेप को न्यूनतम करना। 

भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कठोर दंड देने की स्थिति पैदा करना। पारदर्शिता, जवाबदेही और सुशासन के लिए एक सशक्त लोकपाल की व्यवस्था की मांग को लेकर 2011 में चले अन्ना हजारे के आन्दोलन के फलस्वरूप 1 जनवरी 2014 को अस्तित्व में आए भारत के लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम की धारा 63 में कहा गया था कि संसद द्वारा पारित इस अधिनियम के लागू होने के एक साल के अंदर सभी राज्यों की विधानसभाएं इस एक्ट के अनुरूप लोकायुक्त कानून बनाएगी और उस कानून के आधार पर राज्यों में लोकायुक्त का गठन होगा, लेकिन 9 साल गुजर गए और देश के 28 राज्यों में से उत्तराखण्ड सहित 8 राज्यों ने लोकायुक्त का गठन नहीं किया। इन राज्यों में उत्तराखण्ड, असम, गोवा, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और पुडुचेरी हैं। जम्मू-कश्मीर में जो संस्था थी वह भंग है। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के हस्तक्षेप के बाद भी उत्तराखण्ड जैसे कुछ राज्यों ने लोकायुक्त के गठन की पहल नहीं की। 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने 12 राज्यों के मुख्य सचिवों को अपने यहां यथाशीघ्र लोकायुक्तों के गठन के निर्देश दिए थे।

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