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Prabhat Vaibhav,Digital Desk : 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए को 243 में से 202 सीटों का प्रचंड बहुमत मिला है, जबकि महागठबंधन (विपक्ष) 35 सीटों पर सिमट गया है। ऐसे में एक राजनीतिक सवाल उठ रहा है कि अगर ये सभी 35 विपक्षी विधायक सामूहिक रूप से इस्तीफा दे दें, तो क्या विधानसभा का कामकाज ठप हो जाएगा? इस लेख में हम इसी संवैधानिक स्थिति का विश्लेषण करेंगे। नियम स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि इस तरह के सामूहिक इस्तीफे से विधानसभा की कार्यवाही कानूनी तौर पर तो नहीं रुकती, लेकिन इसका लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर गंभीर राजनीतिक प्रभाव ज़रूर पड़ता है।

सामूहिक इस्तीफों के बाद विधान सभा की स्थिति

सबसे पहले, यह समझना ज़रूरी है कि विपक्षी विधायकों के इस्तीफ़े से सदन का कामकाज या उसकी कार्यवाही बाधित नहीं होती। जब अध्यक्ष इस्तीफ़ा स्वीकार कर लेते हैं, तो वे सीटें रिक्त घोषित कर दी जाती हैं। इससे सदन की कुल संख्या अस्थायी रूप से कम हो जाती है, लेकिन सरकार का बहुमत उसी अनुपात में मज़बूत हो जाता है। शासन करने के लिए, सरकार को स्पष्ट बहुमत की आवश्यकता होती है, जो एनडीए के पास 202 सीटों के साथ अभी भी है।

'कोरम' का नियम और सदन की कार्यवाही

विधानसभा की कार्यवाही के संचालन के लिए 'कोरम' की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है। भारतीय संविधान के अनुसार, सदन की कार्यवाही के संचालन के लिए कुल सदस्यों के केवल दसवें भाग (1/10) की उपस्थिति आवश्यक है। बिहार विधानसभा की 243 सीटों के हिसाब से यह संख्या बहुत कम है। ऐसे में, सत्तारूढ़ दल (एनडीए) अपने 202 विधायकों के बल पर इस कोरम की आवश्यकता को आसानी से पूरा कर सकता है। इसका सीधा सा अर्थ है कि विधानसभा सत्र का आयोजन, बजट पारित करना और अन्य विधायी चर्चाएँ बिना किसी संवैधानिक बाधा के जारी रह सकती हैं।

उपचुनाव और संवैधानिक स्थिरता

विधायकों की सीटों के रिक्त होने से एक और संवैधानिक प्रक्रिया शुरू होती है, जिसे उपचुनाव कहा जाता है। चुनाव आयोग को संवैधानिक रूप से किसी भी रिक्त सीट पर छह महीने के भीतर उपचुनाव कराने का अधिकार है (जब तक कि विधानसभा का पूरा कार्यकाल समाप्त होने में कम समय न बचा हो)। यह प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि अंततः लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व बहाल हो, भले ही विपक्ष सदन से अस्थायी रूप से अनुपस्थित हो।

क्या राष्ट्रपति शासन लगाया जाएगा?

गौरतलब है कि विपक्षी विधायकों के सामूहिक इस्तीफे से राज्य में कोई संवैधानिक संकट पैदा नहीं होता। जब तक सत्तारूढ़ दल को सदन की आधी से ज़्यादा कम हुई संख्या का समर्थन प्राप्त है, तब तक सरकार पूरी तरह स्थिर रहती है। ऐसे में राष्ट्रपति शासन लगाने या विधानसभा भंग करने का कोई सवाल ही नहीं उठता।

लोकतंत्र पर गंभीर प्रभाव

हालाँकि, इस पूरी घटना के राजनीतिक और लोकतांत्रिक निहितार्थ गंभीर हैं। भले ही विधायिका संवैधानिक रूप से कार्य करती रहे, लेकिन एक मज़बूत विपक्ष का अभाव लोकतंत्र के मूल सिद्धांत को कमज़ोर करता है। विपक्ष के बिना, सरकारी नीतियों की कोई जाँच नहीं होती, सरकारी कार्यों पर सवाल उठाने वाला कोई नहीं होता, और सत्तारूढ़ दल पर कोई नियंत्रण और संतुलन नहीं होता। यह स्थिति लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए हानिकारक साबित हो सकती है।