धर्म डेस्क। सनातन परंपरा में प्राचीन काल से ही श्राद्ध क्रिया का वर्णन मिलता है। लोक मान्यता के अनुसार पितृपक्ष में हमारे पूर्वज स्वर्ग से पृथ्वी पर आते हैं। इस दौरान अपने सम्बन्धियों से पिण्डदान प्राप्त करते हैं और आशीर्वाद देते हैं। पितरों के नाराज होने से जीवन समस्याओं से ग्रस्त हो जाता है। माना जाता है कि इस काल में पूर्वज किसी भी रूप में आ सकते हैं। पितृपक्ष में श्राद्ध एवं पिंडदान करने से पितृ दोष समेत सभी प्रकार दोषों का निवारण हो जाता है।
उल्लेखनीय है कि पितृपक्ष में लोग अपने घरों के छत पर कौए के लिए भोजन व मिठाई आदि दोने में रखते हैं। लोक मान्यता के अनुसार कौए को खाना खिलाने से सभी प्रकार के दोष और ऋण से मुक्ति मिल जाती है। ऋषियों ने कौवों को पितरों का रूप बताया है। इस तरह हम पितरों के श्राद्ध के साथ ही प्रकृति का संरक्षण भी करते हैं।
पितृपक्ष में पीपल और बरगद की पूजा का विशेष महत्व है। कहा जाता है कि पितृ पीपल और बरगद के पेड़ पर देवताओं के साथ विश्राम करते हैं। ये दोनों वृक्ष पर्यावरणीय दृष्टि से भी अहम माने जाते हैं। पितृपक्ष में प्रातः स्नान के बाद पितरों को जल देकर ही कोई काम करें। पितृपक्ष में सात्विक भोजन ही करें। पितरों के नाम पर गरीबों को वस्त्र व अन्नदान अवश्य करना चाहिए।
पितृदोष को दूर करने के लिए खीर में केसर मिला कर बनाएं और दान करें। इसके अलावा काले किसी पात्र में पानी भरकर और उसमे तिल डालकर उसे दक्षिण दिशा में रखें। माना जाता है कि पितृ इस पानी को पीकर तृप्त होते हैं और आशीर्वाद देते हैं।
पितरों का श्राद्ध उसी तिथि पर की जानी चाहिए, जिस तिथि पर मृत्यु हुई हो। जिन पूर्वजों की मृत्यु की तिथि की जानकारी न हो, उनका श्राद्ध अमावस्या को किया जाता है। नवमी तिथि जिसे मातृनवमी कहा जाता है, पर श्राद्ध करने से कुल की सभी दिवंगत माताओं का श्राद्ध हो जाता है।