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Muharram : इस्‍लामिक कैलेंडर के पहले महींने में मातम! जाने ख़ास वजह

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धर्म डेस्क। आमतौर पर दुनिया के तमाम धर्मों में नए वर्ष का प्रारंभ जश्‍न और उल्‍लास से होती है। ईसाई धर्म में नए वर्ष की शुरुआत एक जनवरी को, हिंदू धर्म में चैट शुक्ल पक्ष नवमी तिथि से और पारसी धर्म में नवरोज मनाकर नए वर्ष का स्‍वागत किया जाता है, लेकिन इस्‍लाम में ऐसा नहीं है। इस्‍लामिक नए वर्ष की शुरुआत शोक या गम मनाकर की जाती है। इसके पीछे अहम वजह है। 
 
दरअसल, इस्लामी वर्ष हिजरी का पहला महीना मुहर्रम होता है। मुहर्रम के महीने की 10 तारीख को इस्लाम के आखिरी पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन की शहादत हुई थी। इमाम हुसैन की इसी शहादय को याद करते हुए ताजिये निकाले जाते हैं। इस्‍लाम में इस दिन को रोज-ए-आशुरा कहते हैं। मुहर्रम की इस तारीख को मुस्लिम समुदाय के लोग हुसैन की शहादत की याद में जुलूस निकालते हैं और 10वें मुहर्रम पर रोजा रखते हैं।

इस्लामिक मान्‍यता के मुताबिक़ 10वें मोहर्रम के दिन ही हजरत इमाम हुसैन ने इस्‍लाम की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर किये थे। गौरतलब है कि इराक में यजीद नाम का जालिम बादशाह था वह इंसानियत का दुश्मन था। यजीद खुद को खलीफा मानता था, लेकिन अल्‍लाह पर उसका कोई विश्‍वास नहीं था। जालिम यजीद चाहता था कि हजरत इमाम हुसैन उसके खेमे में शामिल हो जाएं, लेकिन हुसैन को यह मंजूर नहीं था।

इस्लाम की रक्षा के लिए हजरत इमाम हुसैन ने यजीद के विरुद्ध जंग का ऐलान कर दिया था। इस जंग में पैगम्बर हजरत मोहम्‍मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन को कर्बला में परिवार और दोस्तों के साथ शहीद कर दिया गया था। यह मुहर्रम का ही महीना था। इसीलिए मुसलमान मुहर्रम में मातम मनाते हैं और अपनी हर खुशी का त्‍याग कर देते हैं।

मुहर्रम माह के इस दिन काले रंग के कपड़े पहने जाते हैं और साथ में रोजे भी रखते हैं। मस्जिदों-घरों में इबादत करते हैं। इस दौरान मुसलमान गम मनाते हैं और खुद को धारदार हथियारों से जख्‍मी करते हैं। मुहर्रम के जुलुश में कई तरह से मातम होता है। ये सब हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद में किया जाता है। 
 

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