
Prabhat Vaibhav, Digital Desk: महाभारत के अमर योद्धा भीष्म पितामह न केवल अपनी अपार शक्ति और युद्ध कौशल के लिए प्रसिद्ध थे, बल्कि उनके त्याग, नीतियों और धर्म के प्रति अटूट समर्पण ने उन्हें विशेष बना दिया। उन्होंने पिता के सुख के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था, जो इतिहास में भीष्म प्रतिज्ञा के नाम से अमर हो गया।
महाभारत युद्ध में उन्होंने कौरवों की ओर से सेनापति की भूमिका निभाई। जबकि वह जानते थे कि पांडव धर्म के पथ पर हैं और कौरव अधर्म की राह पर, फिर भी अपने वचन से बंधे होने के कारण उन्होंने कौरवों का साथ नहीं छोड़ा।
जब उठा सवाल धर्म बनाम प्रतिज्ञा का
कुरुक्षेत्र के युद्ध में भीष्म ने दो टूक कहा था — या तो वह पांडवों को समाप्त करेंगे या श्रीकृष्ण को शस्त्र उठाने पर विवश करेंगे। इधर अर्जुन, अपने पूज्य पितामह को सामने देखकर असमंजस में पड़ गया और युद्ध से पीछे हटने लगा।
यह देखकर श्रीकृष्ण, जो युद्ध में शस्त्र न उठाने का संकल्प ले चुके थे, क्रोध से भर उठे। उन्होंने रथ से उतरकर रथ का पहिया उठाया और भीष्म की ओर दौड़े। यह दृश्य देखकर सभी स्तब्ध रह गए।
धर्म की रक्षा के लिए श्रीकृष्ण का बड़ा फैसला
श्रीकृष्ण जानते थे कि यदि धर्म की रक्षा करनी है, तो इस क्षण कोई भी निजी संकल्प मायने नहीं रखता। वे बोले, "मैंने शस्त्र न उठाने का व्रत लिया है, पर धर्म की रक्षा के लिए आज मैं उसे तोड़ता हूं।"
उनका यह रूप देखकर अर्जुन भागा और उनके चरणों में गिर गया। अर्जुन ने प्रभु को वचन दिया कि वह युद्ध करेगा और पितामह का डटकर सामना करेगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण रुके और अर्जुन को आशीर्वाद दिया।
यह प्रसंग केवल एक युद्ध का नहीं, बल्कि यह दर्शाता है कि जब धर्म और सत्य की रक्षा की बात हो, तो सबसे बड़ा त्याग भी आवश्यक हो सकता है — चाहे वह स्वयं भगवान का ही क्यों न हो।